वे डरते हैं
किस चीज़ से डरते हैं वे
तमाम धन-दौलत
गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज के बावजूद ?
वे डरते हैं
कि एक दिन
निहत्थे और ग़रीब लोग
उनसे डरना
बंद कर देंगे ।
जी हाँ हम हम बात कर रहे है एक इंकलबी आवाज की जिनका नाम है गोरख पांडेय की।
बेबाक, निडर और जनवादी ऐसे शब्दों से पिरोया हुआ नाम गोरख पांडेय, एक ऐसे कवि जिनकी कवितओं में जनता की समस्याएं ही नही बल्कि उसका उत्तरदायी कौन है यह भी तय हो जाता था। वह उन समस्याओं के खिलाफ लड़ने के लिए जनता में अपनी रचनाओं के माध्यम से दम भी भरते थे। गोरख पाण्डे का जन्म देश की आज़ादी से 2साल पहले 1945 में उत्तर प्रदेश के देवरिया में हुआ था।
किसान आंदोलन इस समय चल रहा है आज भी उनकी कवियताएँ उतनी ही प्रासंगिक हैं। उनकी कविताओं में किसान की बात होती है, उसके सपने होते हैं, भूख और बेरोजगारी की बात होती है। गोरख आमजनमानस के भावनाओं की तह से लेकर उसकी आकांक्षाओं और उनकी रुकावटों सब को वो इतने मार्मिक ढंग से लिखते हैं जिसे पढ़कर लगता है कि मानो ये अपने जीवन का भी कुछ हिस्सा हो या किसी की आवाज हो। वह जनसंघर्ष के कवि थे और मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित भी थे।
गोरख जेएनयू यानी जवाहर नेहरू यूनिवर्सिटी आने से पहले काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ते थे लेकिन एक समय ऐसा आया था जब उन्हें वहां की परिस्थितियां भी रहने लायक नहीं लग रही थीं। इस बात का पता गोरख पाण्डेय की डायरी से चलता है जिसमें उन्होंने 18 मार्च 1976 को लिखा था “मैं बनारस तत्काल छोड़ देना चाहता हूं। मैं यहां से बुरी तरह ऊब गया हूं। विभाग,लंका छात्रावास, लड़कियों पर बेहूदा बातें करता है। राजनीतिक मसखरी से हमारा हाल बिगड़े छोकरों सा हो गया है। लेकिन क्या फिर हमें ख़ासकर मुझे जीवन के प्रति पूरी लगन से सक्रिय नहीं होना चाहिए? ज़रूर कभी भी शुरू किया जा सकता है। दिल्ली में अगर मित्रों ने सहारा दिया तो हमें चल देना चाहिए। मैं यहां से हटना चाहता हूं। बनारस से कहीं और भाग जाना चाहता हूं।”
इससे पता चलता है कितनी बेचैनी उनके मन में थी, देश और समाज को देखने के आम प्रचलित मानकों से उनका तालमेल नहीं बैठता था। अंतत: वे दिल्ली की तरफ चल दिए और अगला ठिकाना जेएनयू हो गया। गोरख जब अपने घर आते थे वो गावं के गरीबों और उनकी बस्तियों में जाकर वहीं गीत गाते । सभी के साथ गीत गाते,रंग खेलते और उनकी झोपड़ियों में बैठ कर उन्हीं से मांग कर खाना खाते। शायद इसीलिए आज भी उनके कविताओं और गद्यांश को पढ़कर हमारे आंखों में वे भावनाएँ एक फ़िल्म की तरह चलने लगती है क्योंकि उन्होंने समाज में लोगों की केवल समस्याओं को देखा ही नही है बल्कि उन सभी के साथ महसूस करते हुए जिया भी है।
हज़ार साल पुराना है उनका गुस्सा
हज़ार साल पुरानी है उनकी नफ़रत
मैं तो सिर्फ़
उनके बिखरे हुए शब्दों को
लय और तुक के साथ लौटा रहा हूँ
मगर तुम्हें डर है कि
आग भड़का रहा हूँ
वह अपनी जनकविताओं जनगीतों के लिए जाने जाते हैं और यही उनके लिए सबसे सम्मान का विषय है गोरख जनता को भड़काते नहीं हैं बदलना चाहते हैं, हमारे देश में हुए कई आन्दोलन में लोग उनसे प्रेरणा लेते हुए उनके गीत सामूहिक रूप से गाते थे हम ये भी कह सकते हैं कि आंदोलनों ने गोरख को और गोरख की कविताओं को कहीं अधिक लोकप्रिय बनाया है। खासकर छात्रों और नौजवानों के आंदोलनों में जितनी गोरख की कविताएं पढ़ी जाती हैं और गीत गाये जाते हैं, उनके समकालीन हिंदी साहित्य के शायद ही किसी कवि को उतना मुनासिब हो यानी कि इतनी सरल और सुव्यवस्थित भाषा में गोरख ने कविताएं कही हैं कि कोई भी गोरख की कविताओं और गीतों को समझ जाता है। सिर्फ समझ ही नहीं जाता बल्कि उनसे आसानी से जुड़ जाता और ऐसा महसूस करता है कि गोरख ने उसी के दर्द को कविता के रूप में कलमबद्ध किया हो।
समझदारों का गीत में गोरख लिखते हैं
हवा का रुख कैसा है, हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं, हम समझते हैं
हम समझते हैं खून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है, हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं
गोरख के काव्य की एक खास बात यह है कि उनके काव्य में महिलाएं अलग अलग रूपों में घूम घूमकर आयी हैं। “कैथर कला की औरतें” इस कविता को ले लीजिए इसमें आपको लड़ती विद्रोही औरतें दिखेंगी या इस कविता में महिला शक्ति दिखता है जिनमें वो लड़ रही हैं। कैथर कला की घटना कोई समान्य घटना नहीं थी।गोरख की दृष्टि उस बड़ी परिघटना तक पहुँची है।गोरख लिखते हैं
घर-घर में दीवारें हैं
दीवारों में बंद खिड़कियाँ हैं
बंद खिड़कियों से टकराकर अपना सर
लहूलुहान गिर पड़ी है वह—–
इस कविता में गोरख ने पूरी संवेदना के साथ औरत की ऐतिहासिक पीड़ा को जिस प्रकार से चित्रित किया वैसा चित्रण हिन्दी कविता में बहुत कम है। औरत की पीड़ा का चित्रण तो किया ही है साथ ही साथ पूरे पुरूष समाज को कटघरे में खड़ा कर देते हैं, दण्डित करते हैं और फिर लिखते हैं – “गिरती है आधी दुनिया/ सारी मनुष्यता गिरती है/ हम जो जिंदा हैं/ हम दण्डित हैं।”
गोरख महिलाओं की आवश्यकता को समाज में और कंहा कंहा देखते हैं वो लिखते हैं
अंधेरे कमरों और बंद दरवाज़ों से
बाहर सड़क पर जुलूस में और युद्ध में
तुम्हारे होने के दिन आ गये हैं (तुम जहां कहीं भी हो)”
इस तरह की कविता लिखने वाले गोरख पहले कवि हैं जिन्होंने सड़क, जुलूस और युद्ध में औरतों के होने की आवश्यकता को महसूस किया है।
गोरख हमेशा आंदोलित होते रहते हैं, सत्ता से मुठभेड़ भी करते हैं लेकिन इसके साथ में उम्मीद के गीत भी लिखते हैं –
आएंगे, अच्छे दिन आएंगे
गर्दिश के दिन ये कट जाएंगे
सूरज झोपड़ियों में चमकेगा
बच्चे सब दूध में नहाएंगे।
गोरख सिज़ोफ्रेनिया से परेशान रहते थे। सिज़ोफ्रेनिया को मानसिक रोगों में सबसे खतरनाक समस्या माना जाता है। इस बीमारी के कारण मरीज बहुत आसानी से जिंदगी से निराश हो सकता है। और कई बार तो मरीज को आत्महत्या करने की भी प्रबल इच्छा होती है। यही हुआ गोरखपाण्डे के साथ उनकी यह परेशानी धीरे-धीरे इतना बढ़ गई कि 29 जनवरी 1989 को उन्होंने आत्महत्या कर ली। उस समय वह जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में रिसर्च एसोसिएट थे। मृत्यु के बाद उनके तीन संग्रह प्रकाशित हुए हैं – स्वर्ग से विदाई (1989), लोहा गरम हो गया है (1990) और समय का पहिया (2004)। गोरख आज इस दुनिया में नहीं हैं, अरसा हो गया उन्हें दुनिया को अलविदा कहे हुए, लेकिन उनके गीत हमेशा फिजां में गूंजते रहेंगे, उनकी कविताओं का पाठ-पुनर्पाठ होता रहेगा और इस तरह वे हमेशा ज़िंदा रहेंगे।
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